उपेन्द्र यादव का तीखा बयान: नेपाल में सोशल मीडिया बैन, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी पर युवाओं का गुस्सा

सितंबर 17, 2025 5 टिप्पणि Priyadharshini Ananthakumar

यादव का आरोप: जवाबदेही में दोहरा मापदंड, युवाओं का भरोसा टूटा

नेपाल आज दो मोर्चों पर उबल रहा है—एक तरफ बेरोजगारी और भ्रष्टाचार, दूसरी तरफ सोशल मीडिया पर कड़े प्रतिबंध। इसी पृष्ठभूमि में पूर्व उप-प्रधानमंत्री और जनता समाजवादी पार्टी (जसपा) नेपाल के अध्यक्ष उपेन्द्र यादव ने सरकार पर तीखा हमला बोला है। उनका कहना है कि भ्रष्टाचार के मामलों में कार्रवाई चयनात्मक है, जिससे युवाओं का भरोसा टूट रहा है और गुस्सा सड़क पर दिख रहा है।

यादव ने अपने हालिया फेसबुक पोस्ट में भूमि मंत्री बलराम अधिकारी के मामले का जिक्र किया। आरोप ये कि अधिकारी की कुर्सी पर कोई आंच नहीं आती क्योंकि “सत्ता के ताकतवर” लोग उन्हें बचा रहे हैं। इसके उलट, पूर्व सामान्य प्रशासन मंत्री राजकुमार गुप्ता से इस्तीफा दिलवाया गया, जिसे यादव ने उनकी मधेशी पहचान से जोड़कर देखा। यादव का कहना है, अगर कोई मंत्री मधेशी, थारू, दलित या किसी वंचित समुदाय से होता, तो प्रधानमंत्री उसे तुरंत हटाने में देर नहीं करते।

यह सिर्फ पद और प्रभाव की लड़ाई नहीं है। नेपाल की राजनीति में क्षेत्रीय और जातीय प्रतिनिधित्व लंबे समय से बहस का विषय रहा है। तराई–मधेश की शिकायतें—नौकरियों में कम प्रतिनिधित्व, जांच एजेंसियों का असमान रवैया, और सत्ता के केंद्र तक सीमित पहुंच—आज फिर सुर्खियों में हैं। यादव के तीर सीधे इसी संवेदनशील नस पर लगे हैं, जिससे सरकार की जवाबदेही पर सवाल और तेज हो गए हैं।

युवा नाराज क्यों हैं? बेरोजगारी उनकी पहली वजह है। डिग्री हाथ में है लेकिन नौकरी नहीं, और जो मिल भी रही है, उसका वेतन परिवार चलाने के लिए नाकाफी। ऊपर से भ्रष्टाचार के किस्से—लाइसेंस से लेकर ठेकों तक—उनके गुस्से को वैधता देते हैं। जब वे सोशल मीडिया पर सवाल पूछते हैं और वही आवाज़ें दबती नजर आती हैं, तो निराशा आंदोलन में बदल जाती है।

यादव की दलील का सार यही है: जब कानून सबके लिए बराबर नहीं दिखता, तो व्यवस्था पर भरोसा कैसे टिके? वे चेताते हैं कि चयनात्मक जवाबदेही से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है और लोकतंत्र कमजोर होता है। ऐसे वक्त में पारदर्शिता का संकेत—जैसे निष्पक्ष जांच, स्पष्ट समयसीमा, और सार्वजनिक रिपोर्टिंग—सरकार की विश्वसनीयता बढ़ा सकते हैं।

इस बहस के बीच एक और मोर्चा खुला है—सुप्रीम कोर्ट ने 2007 के गौर कांड की लंबित जांच को आगे बढ़ाने का आदेश दिया है। इस हिंसा में कई लोगों की जान गई थी और राजनीतिक हलकों में इसकी गूंज आज भी है। अदालत के नए निर्देश से यादव सहित कई वरिष्ठ नेताओं पर कानूनी दबाव बढ़ेगा। राजनीति और कानून की इस चौराहे पर हर कदम अहम होगा, क्योंकि सार्वजनिक धारणा इन्हीं फैसलों से बनती-बिगड़ती है।

सोशल मीडिया बैन से कारोबार ठप, सड़क पर विरोध, प्रेस स्वतंत्रता पर सवाल

नेपाल सरकार ने हाल के दिनों में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर कड़ा शिकंजा कसा है। रिपोर्टों के मुताबिक, लगभग सभी बड़े प्लेटफॉर्म्स पर रोक जैसी स्थिति बनी रही। मकसद—सरकार का कहना है—प्लेटफॉर्म्स को “ठीक से प्रबंधित, जिम्मेदार और जवाबदेह” बनाना है। इसके लिए संसद में एक नया विधेयक भेजा गया है, जिसमें कंपनियों को देश में लिआज़ो/संपर्क कार्यालय बनाने की शर्त पर जोर है। समर्थकों का तर्क है कि इससे फर्जी खबर और विद्वेष फैलाने वालों पर लगाम लगेगी, और विदेशी कंपनियां स्थानीय कानूनों के प्रति जवाबदेह होंगी।

आलोचकों की चिंता इससे उलट है। उनका कहना है, व्यापक रोक से असहमति की आवाजें दब जाती हैं और यह सेंसरशिप के दरवाजे खोलता है। काठमांडू में पत्रकारों ने नारे लिखी तख्तियां उठाकर विरोध किया—“सोशल नेटवर्क बंद नहीं होंगे, आवाजें नहीं दबेंगी” और “अभिव्यक्ति की आज़ादी हमारा अधिकार है।” अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने भी चेताया है कि ऐसे कदम प्रेस स्वतंत्रता के लिए खतरनाक मिसाल बन सकते हैं।

प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली ने कड़ा रुख दिखाते हुए कहा कि राष्ट्र को कमज़ोर करने की कोशिश बर्दाश्त नहीं होगी। उनके बयान का सार था—कुछ लोगों की नौकरियों का नुकसान देश की स्वतंत्रता से बड़ा नहीं हो सकता। यह सोच सुरक्षा और संप्रभुता की चिंता से आती है, लेकिन सवाल ये है कि संतुलन कैसे बने—दुष्प्रचार पर लगाम भी लगे और वैध आलोचना की जगह भी बनी रहे।

व्यापार पर असर साफ दिखा। छोटे-बड़े कारोबार डिजिटल मार्केटिंग और ग्राहक संवाद के लिए उन्हीं प्लेटफॉर्म्स पर निर्भर हैं जिन पर रोक लगी। वीकेंड में जैसे ही नेटवर्क बंद हुए, ऑर्डर, बुकिंग और सपोर्ट चैट रुक गए। पर्यटन उद्योग—होटल, ट्रैवल एजेंसियां, ट्रेकिंग गाइड—खासकर विदेशी यात्रियों तक पहुंचने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लेते हैं। नए सीजन की तैयारियों के बीच यह झटका भारी पड़ा।

परिवारों पर भी असर कम नहीं। लाखों नेपाली विदेश में काम करते हैं और घर से संवाद के लिए मैसेजिंग और वीडियो कॉलिंग प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल करते हैं। अचानक रुकावट ने कई घरों की रोजमर्रा की बातचीत तोड़ी। लोगों ने वीपीएन जैसे विकल्प अपनाए, लेकिन हर किसी के लिए यह आसान या सुलभ नहीं। डिजिटल कनेक्टिविटी सिर्फ विलासिता नहीं रही—यह रोजमर्रा की जरूरत है।

नीति के स्तर पर देखें तो सरकार की चुनौती साफ है: सोशल मीडिया कंपनियों को स्थानीय कानूनों का पालन कराने के व्यावहारिक तरीके बनाना, बिना इस जोखिम के कि वैध आलोचना भी “विघटनकारी” ठहराई जाए। सरकार का बिल कहता है—प्लेटफॉर्म्स देश में जिम्मेदार संपर्क बिंदु नियुक्त करें और शिकायतों पर जवाबदेह रहें। आलोचक चाहते हैं कि कोई भी प्रतिबंध पारदर्शी, सीमित समय का, और न्यायिक समीक्षा के दायरे में हो, ताकि अधिकारों और सुरक्षा का संतुलन बना रहे।

युवाओं का गुस्सा यहीं से दो दिशाओं में फूटता है—पहला, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी पर ठोस जवाब; दूसरा, डिजिटल स्पेस में बोलने की जगह। जब एक साथ दोनों पर दबाव महसूस होता है, तो विरोध तेज होता है। यही वजह है कि विपक्षी दल हों या नागरिक समूह—वे सड़कों पर हैं और संसद के भीतर भी कड़ी बहस की मांग कर रहे हैं।

मामला अभी खुला है और अगले कुछ हफ्ते अहम होंगे। संसद में प्रस्तावित डिजिटल विधेयक पर चर्चा, अदालत में गौर कांड की पड़ताल, और सड़कों पर विरोध—तीनों मोर्चों पर फैसले राजनीतिक तापमान तय करेंगे। सरकार अगर संवाद, स्पष्ट नियम और चरणबद्ध क्रियान्वयन का रास्ता चुनती है, तो तनाव कम हो सकता है। और अगर कड़ाई बिना संवाद के बढ़ी, तो टकराव बढ़ेगा।

फिलहाल इतना तय है कि नेपाल सोशल मीडिया बैन सिर्फ तकनीकी मसला नहीं—यह अर्थव्यवस्था, लोकतंत्र और समाज के रोजमर्रा के ढांचे को छूता है। और यादव का हमला सिर्फ किसी एक मंत्री या एक केस पर नहीं, बल्कि उस भरोसे पर है जो किसी भी लोकतंत्र की असली पूंजी है।

  • क्या देखना होगा: संसद में बिल की धाराएं—कंपनियों की जवाबदेही कैसे तय होगी?
  • कितनी अवधि तक बंदी रहेगी और क्या न्यायिक निगरानी मिलेगी?
  • गौर कांड जांच की रफ्तार—गवाह, दस्तावेज और अभियोजन के अगले कदम।
  • व्यापार और पर्यटन के लिए वैकल्पिक डिजिटल चैनल—सरकार और उद्योग किन समाधानों पर सहमत होते हैं?

5 जवाब

Vakiya dinesh Bharvad
Vakiya dinesh Bharvad सितंबर 17, 2025 AT 18:35

सोशल मीडिया बंद होने से छोटे व्यापारियों की बिक्री गिर गई 😞

Aryan Chouhan
Aryan Chouhan सितंबर 28, 2025 AT 02:35

अब तो गवर्नमेंट ने सबकी नौकरी छीन ली, अब क्या करे सबको?

Tsering Bhutia
Tsering Bhutia अक्तूबर 8, 2025 AT 10:35

विफ़लता के बावजूद लोग VPN और प्रॉक्सी के ज़रिये आवाज़ उठाने की कोशिश कर रहे हैं।
डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार लाना तुरंत जरूरी है।
एक ठोस नीति बनाकर ही अछूती स्वतंत्रता की गारंटी दी जा सकती है।
सरकार को स्थानीय कंपनियों को सहयोगी बनाकर काम करना चाहिए।
वहीं युवा वर्ग को साक्षर बनाकर भी इस समस्या का समाधान निकाला जा सकता है।

Narayan TT
Narayan TT अक्तूबर 18, 2025 AT 18:35

भ्रष्टाचार के बहाने से लोकतंत्र की इज्ज़त को धुंधला किया जा रहा है।

SONALI RAGHBOTRA
SONALI RAGHBOTRA अक्तूबर 29, 2025 AT 02:35

नेपाल की वर्तमान स्थिति कई आयामों में जटिल है।
पहले तो बेरोजगारी ने युवा वर्ग को निराश किया है, जिससे सामाजिक तनाव बढ़ा है।
दूसरा मुद्दा सोशल मीडिया पर प्रतिबंध है, जो सूचना की स्वतंत्रता को बाधित करता है।
सरकार द्वारा उठाया गया ठोस कदम न हों तो यह दर्शकों के भरोसे को और घटा देगा।
जैसे ही डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म बंद होते हैं, स्थानीय व्यवसायों की बुकिंग और ग्राहक संपर्क रुक जाता है।
पर्यटन उद्योग इस से सबसे अधिक प्रभावित हो रहा है, क्योंकि ट्रैवल एजेंसियां ऑनलाइन बुकिंग पर निर्भर करती हैं।
भ्रष्टाचार की गूँज सरकारी योजनाओं में पक्षपात दिखाती है, जिससे सामाजिक समानता खतरे में है।
यदि भूमि मंत्री के मामलों में चयनात्मक कार्रवाई जारी रही तो सार्वजनिक राय झुकेगी।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा गौर कांड की जांच को तेज़ करने का आदेश लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सुदृढ़ कर सकता है।
जस्टिस प्रॉसिडेंट के इस कदम से न्याय प्रणाली में भरोसा बढ़ेगा।
दूसरी ओर, यदि सरकारी प्रतिबंध बिना संवाद के जारी रहेगा, तो दमनकारी उपायों का खतरनाक रूप सामने आएगा।
डिजिटल कानून का मसौदा अगर पारदर्शी और सीमित समय के लिए हो तो एक समझौता बन सकता है।
अंतरराष्ट्रीय संगठनों की चेतावनी को भी सरकार को गंभीरता से लेना चाहिए।
सामाजिक आंदोलन में युवा वर्ग का भागीदारी बढ़ाने के लिए रोजगार योजनाओं को पुनःडिज़ाइन करना आवश्यक है।
अंततः, यदि सरकार संवाद, स्पष्ट नियम और चरणबद्ध कार्यान्वयन अपनाती है, तो सामाजिक तनाव कम हो सकता है।

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