पिछले कुछ हफ्तों में नेपाल में कई प्रमुख प्लेटफ़ॉर्म बंद हो गए। फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब तक पहुंच मुश्किल हो गई। कई लोगों को लगा कि यह सीधा‑सीधा इंटरनेट का प्रायिक बंदी है, लेकिन असल में सरकार ने कुछ खास कारणों से इस कदम को उठाया।
सरकार का कहना है कि बैन का मकसद राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वजनिक शांति बनाए रखना है। कुछ मामलों में झूठी खबरें और गलत जानकारी तेजी से फैल रही थीं, जिससे तनाव बढ़ रहा था। इसके अलावा, सरकार ने कई बार कहा कि विदेशी प्लेटफ़ॉर्म्स पर कुछ कंटेंट स्थानीय कानूनों के खिलाफ है, जैसे कि राष्ट्रीय उत्सवों या राजनैतिक विषयों पर संवेदनशील पोस्ट।
बैन के बाद लोगों ने दो‑तीन चीज़ें महसूस कीं: पहला, व्यवसायिक प्रमाणिकता में बाधा – कई छोटे व्यवसायों का ऑनलाइन विज्ञापन बंद हो गया। दूसरा, युवा वर्ग के मनोरंजन और जानकारी के स्रोत कट गए, जिससे उनके दैनिक रूटीन में ख़राबी आई। तीसरा, कुछ लोग वैकल्पिक VPN सेवा की ओर मुड़े, पर इससे नेटवर्क की गति घट गई और सुरक्षा का जोखिम बढ़ा।
आँखों के सामने, कई NGOs और मानवाधिकार समूहों ने बैन को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उल्लंघन के रूप में देखा। उन्होंने सरकार को अपील की कि वे बैन को अस्थायी रखें और सूचना को सही दिशा में चैनल करें, न कि पूरे प्लेटफ़ॉर्म को बंद करें।
अगर आप नेपाल में हैं और सोशल मीडिया तक पहुँच नहीं पा रहे हैं तो कुछ आसान उपाय आज़मा सकते हैं। सबसे पहले, वैध VPN सेवाओं का इस्तेमाल करें, लेकिन भरोसेमंद प्रदाता चुनें। दूसरा, स्थानीय समाचार पोर्टल और रेडियो को फॉलो करें – ये अक्सर प्रमुख अपडेट्स देते हैं। तीसरा, अपने मोबाइल डेटा से सीधे ऐप्स के बजाय ब्राउज़र में साइट खोलें; कभी‑कभी यह थोड़ा मदद करता है।
आगे आने वाले हफ्तों में सरकार की नीतियाँ बदल सकती हैं, खासकर अगर अंतर्राष्ट्रीय दबाव या घरेलू प्रतिक्रिया तेज़ी से बढ़े। इसलिए, अपडेटेड रहना और भरोसेमंद स्रोतों से जानकारी लेना ज़रूरी है।
निष्कर्ष स्वरूप, नेपाल में सोशल मीडिया बैन केवल तकनीकी समस्या नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक पहलू भी रखता है। समझदारी से कदम उठाएं, वैकल्पिक साधनों को अपनाएं और हमेशा सावधान रहें कि आप किस तरह की जानकारी साझा कर रहे हैं।
नेपाल में सोशल मीडिया पर कड़ी पाबंदियों और बेरोजगारी के बीच युवाओं का गुस्सा बढ़ा है। पूर्व उप-प्रधानमंत्री उपेन्द्र यादव ने सरकार पर भ्रष्टाचार मामलों में पक्षपात का आरोप लगाया और कहा कि जवाबदेही चयनित लोगों तक सीमित है। काठमांडू में पत्रकारों ने बैन के खिलाफ प्रदर्शन किया। सुप्रीम कोर्ट ने 2007 के गौर कांड की जांच फिर से खोलने का आदेश भी दिया है।
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